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जातिवाद का अर्थ, दुष्परिणाम, कारण, निवारण और सम्बंधित कानून

Casteism in Hindi: जातिवाद का मतलब, कारण और समाज पर इसका प्रभाव

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जातिवाद एक ऐसी सामाजिक बुराई है जो सदियों से भारतीय समाज को जकड़े हुए है। यह एक ऐसी मानसिकता है जिसमें अपनी जाति को दूसरों की जाति से श्रेष्ठ माना जाता है और दूसरों के प्रति भेदभाव और घृणा की भावना पैदा होती है।

एक सभ्य समाज के विपरीत, जहां योग्यता और व्यक्तित्व को महत्व दिया जाता है, जातिवादी समाज जातिगत श्रेष्ठता को अधिक वरीयता देता है।

इस लेख में हम जातिवाद (Casteism) क्या है, इसकी परिभाषा, अर्थ, कारण और समाज पर पड़ने वाले इसके प्रतिकूल प्रभावों के बारे में विस्तार से जानेंगे।

जातिवाद का मतलब (Meaning of Casteism)

जातिवाद के अर्थ में जाति के आधार पर किसी व्यक्ति या समुदाय के खिलाफ पूर्वाग्रह या भेदभाव करना शामिल है। इसमें, जाति के आधार पर किसी समूह या समुदाय का किसी भी प्रकार का शोषण भी शामिल है।

जाति शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘जनि‘ शब्द से हुई है जिसका मतलब जन है। इसकी व्युत्पत्ति और अर्थ को लेकर विभिन्न मत हैं, परंतु सभी मतों में एक बात समान है कि यह शब्द जन्म, उत्पत्ति, गुण, वर्ग या प्रजाति से संबंधित है।

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति (Origin of Caste system)

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति एक जटिल और विवादित विषय है जो मूल रूप से, प्राचीन भारत से लगभग 3000-4000 साल पूर्व पैदा हुई थी।

विद्वानों के अनुसार, इस सामाजिक संरचना का विकास सदियों में कई कारकों से प्रभावित होकर हुआ जिसमे वर्ण व्यवस्था, व्यवसाय से जुड़े विभाजन, सामाजिक-आर्थिक शक्ति का असंतुलन, धार्मिक प्रभाव, क्षेत्रीय विविधता और भौगोलिक अलगाव शामिल हैं।

प्राचीन वर्ण व्यवस्था

भारत की प्राचीन वर्ण व्यवस्था, जिसे वेदों में उल्लिखित किया गया है, ने मूल रूप से समाज को कर्म के आधार पर चार श्रेणियों में विभाजित किया: ब्राह्मण (पुजारी और विद्वान), क्षत्रिय (योद्धा और शासक), वैश्य (व्यापारी और किसान), और शूद्र (श्रमिक और सेवक)।

समय के साथ, ये व्यापक वर्गीकरण अधिक विशिष्ट जातियों में विभाजित हो गए। साथ ही, व्यवसायों से जुड़े विभाजन अक्सर वंशानुगत हो जाते थे और इस प्रकार कर्म के आधार पर बनी जाति जन्म के आधार पर हो गयी। उदाहरण के लिए, एक लोहार का पुत्र लोहार बनता, और इस तरह एक विशिष्ट लोहार जाति का उदय हुआ और फिर इनकी आने वाली पीढ़ियां भी लोहार जाति की मानी जाने लगी।

सामाजिक-आर्थिक असमानता

सामाजिक-आर्थिक असमानता ने भी जाति व्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जो लोग अधिक समृद्ध और शक्तिशाली थे, उन्होंने अपने विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए समाज में पदानुक्रम स्थापित किए। इसके विपरीत, हाशिए पर पड़े समुदायों को अक्सर जाति व्यवस्था के निचले पायदान पर धकेल दिया जाता था।

धर्म ने भी कई रीति-रिवाजों और विश्वासों को लागू किया जिससे जाति विभाजन मजबूत हुआ।

क्षेत्रीय विविधता और भौगोलिक अलगाव

क्षेत्रीय विविधता और भौगोलिक अलगाव ने भारत भर में स्थानीयकृत जाति निर्माण में भी योगदान दिया। प्रत्येक क्षेत्र की अपनी अनूठी सांस्कृतिक प्रथाएं, भाषाएं और परंपराएं थीं, जिससे अलग-अलग जाति संरचनाओं का विकास हुआ। यहाँ तक कि पहाड़ियों या अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले समुदाय भी एक विशिष्ट जाति में विकसित हो सकते थे।

भारत में जातिवाद (Casteism in India)

भारत के इतिहास में जातिवाद का बहुत ही निर्मम स्वरुप मिलता है। यहाँ ग्रामीण समुदायों को एक क्रम में व्यवस्थित किया गया था जो मूल रूप से जाति पर आधारित था। उच्च या श्रेष्ठ जाति हमेशा निम्न वर्ग से दूर एक अलग स्थान पर रहती थी।

निचली जाति के लोगो को शिक्षा प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं था, पानी के कुओं को उनके साथ साझा नहीं किया जाता था, मंदिर में उनके प्रवेश पर पूरी तरह से प्रतिबंध था। भारत का इतिहास उनके शोषण और अत्याचार किये जाने की अनेको घटनाओं की गवाही देता है।

निम्न वर्ग के व्यक्ति को उच्च जाति के व्यक्ति की किसी भी वस्तु को छूने की अनुमति नहीं थी। सार्वजनिक स्थानों का उपयोग करने या उच्च जाति के व्यक्ति के सामने कुर्सी पर बैठने का भी अधिकार नहीं था। इसके साथ ही, ब्राह्मण शूद्रों से खाना-पीना स्वीकार नहीं करते थे। हर कोई अपनी जाति के भीतर ही विवाह कर सकता था।

इस तरह, निचली जाति के जीवन को वास्तविक नियंत्रण की एक रेखा के भीतर कैद कर दिया गया जिसे उच्च जाति द्वारा नियंत्रित किया जाता था। निचली जाति को उच्च जाति की तरह कोई समान अधिकार प्राप्त नहीं था।

मनुस्मृति (Institutions of Manu)

मनु नाम के एक हिन्दू ब्राह्मण, जो स्वयं को ब्रह्मा का पहला पुत्र बताता था, ने मनुस्मृति नाम की एक पुस्तक लिखी जिसमे उसने हिंदुओं को चार श्रेणियों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में वर्गीकृत कर उनकी तुलना ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से की।

Division of Caste as per Manusmriti

मनु ने जाति व्यवस्था को ‘समाज की व्यवस्था और नियमितता‘ का आधार बताकर जातिवाद को सही ठहराने का प्रयाश किया। उसने मनुस्मृति को “मानव-धर्म-शास्त्र” के रूप में प्रचारित किया ताकि अधिक से अधिक लोग इसका पालन करें। मनुस्मृति के नियमों का उलंघन करने वाले व्यक्ति को अधर्मी और अपराधी माना जाता था।

मनुस्मृति (Manu Laws) को ‘न्याय प्रणाली’ में सामाजिक पूर्वाग्रह को बढ़ावा देने वाली सबसे विवादास्पद पुस्तकों में से एक माना जाता है, जहां ब्राह्मणों और क्षत्रियों को किसी कदाचार के लिए सजा देते समय सहानुभूति दिखाई जाती थी, किन्तु, शूद्रों को छोटे-मोटे उल्लंघनों या कम गंभीरता वाले अपराधों के लिए भी कठोरतम दंड और यातनायें दी जाती थी।

मनुस्मृति को दुनिया भर में आलोचनायें मिलती है क्योंकि यह देश के संवैधानिक सिद्धांतों के विरूद्ध जाकर महिलाओं के उत्पीड़न और निचली जातियों के दमन को सही ठहराती है। यह भारतीय सविधान के अनुच्छेद 15, 16 और 17 के अंतर्गत प्रदत्त “समानता के अधिकार” के उल्लंघन को बढ़ावा देती है।

चूँकि ब्राह्मणों को सबसे ऊँची जाति माना गया था और उनक पेशा समाज के अन्य वर्णों को शैक्षणिक ज्ञान देना था। अतः जो ब्राह्मण शिक्षक मनुस्मृति को अपना आदर्श मानते थे वो अपने शैक्षणिक संस्थानों के माध्यम से समाज में जातिवादी अवधारणा को प्रसारित करते थे जिस कारण जातिवाद और बढ़ता चला गया।

वर्तमान स्थिति

आधुनिक भारत में जातिवाद को मिटने के लिए सामाजिक व कानूनी स्तर पर लगातार कई प्रयास किये गए जैसे कि – भीमराव अंबेडकर, जो स्वयं जातिवाद का शिकार थे, ने इस व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उन्होंने भारत का संविधान रचकर सभी दलितों के लिए समान अधिकारों की बात की और उन्हें उचित स्थान दिलाने के लिए संवैधानिक अधिकार दिलवाया।

इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने विभिन्न कानूनों जैसे नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 लाकर जातिवाद के कारण होने वाली हिंसा और असमानता को कम करने का प्रयास किया किन्तु आज भी गाँव और पिछड़े इलाको में जहाँ जागरूकता और शिक्षा का आभाव हैं वहां जातिवाद व्याप्त है। ब्राह्मण जाति को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है, उसके बाद क्षत्रिय और वैश्य को।

शूद्र जाति के लोगों को छूत माना जाता है, भले ही वे कितने भी पढ़े-लिखे या प्रतिभाशाली हों। उन्हें कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है, और उनके साथ हिंसा और अत्याचार की घटनाएं भी सामने आती हैं।

ग्रामीण समाज में, अंतर्जातीय विवाह को अक्सर स्वीकार नहीं किया जाता है, और इसका परिणाम हिंसा और सामाजिक बहिष्कार भी हो सकता है। गुजरात में दलित के घोड़ी चढ़ने पर उसकी हत्या कर दी गयी थी इसी प्रकार राजस्थान के बूंदी में घोड़ी चढ़ने पर युवक के घर में तोड़-फोड़ किया गया था।

उपरोक्त के बावजूद, शहरी और विकसित क्षेत्रों में जहाँ लोग शिक्षित हैं और रूढ़िवदिताओं को नहीं मानते वहां जातीवाद का प्रभाव कम देखा जाता है। उदहारण के लिए – बिहार, ओडिशा, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों की तुलना में भारत के विकसित राज्यों जैसे दिल्ली, मुंबई और बैंगलोर में में जातिवाद की प्रथा कम देखने को मिलती है।

कानूनी-वैधता

जातिवाद की प्रथा भारतीय संविधान के आदर्शों के खिलाफ है। यह सविधान के अनुच्छेद 15, 16 और 17 के तहत लोगों को प्रदत्त “समानता के अधिकारों” का बड़े पैमाने पर हनन करती है।

संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत, अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है और भारत में किसी भी रूप में इसका प्रचार और अभ्यास पूर्णतः प्रतिबंधित है।

अब अस्पृश्यता [अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1954 के तहत] एक गंभीर अपराध है, कोई भी व्यक्ति यदि जाति के आधार पर किसी के साथ भेदभाव/छुआछूत करता है तो उसे भारतीय कानून के अनुसार 2 साल से अधिक समय के लिए कठोर कारावास / सजा देने का प्रावधान किया गया है।

जातिवाद के वर्तमान कारण

जातिवाद के वर्तमान कारणों में कुछ मुख्य तत्व शामिल हो सकते हैं:

  1. शिक्षा की अभाविता: शिक्षा की कमी भी जातिवाद का एक प्रमुख कारण है। अधिकांश जातियों में शिक्षा की सामान्य स्तर पर पहुँच की कमी होती है, जो सामाजिक और आर्थिक असमानता को बढ़ाती है और जातिवाद को स्थायी बनाती है।
  2. राजनीतिक लाभ: जातिवाद कई राजनीतिक दलों द्वारा किए गए “जाति के राजनीतिकरण” का परिणाम है। राजनितिक दल लोगों को जाति के आधार पर विभाजित करके वोट हासिल करते हैं और जातिवाद को बढ़ावा देते हैं।
  3. अज्ञानता और अंधविश्वास: जाति व्यवस्था का जन्म अज्ञानता और अंधविश्वास से हुआ था। लोगों को सिखाया गया कि कुछ जातियां दूसरों से श्रेष्ठ हैं, और यह धारणा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जा रही है।
  4. स्वार्थ हित और असुरक्षा की भावना: उच्च जाति के अधिकांश लोग निचली जाति के लोगो को अपने बराबरी में नहीं रखना चाहते क्योंकि इससे उन्हें उच्च कुल में जन्म लेने पर मिलने वाला ‘जन्मजात सम्मान और श्रेष्ठता का अधिकार‘ नहीं मिल पायेगा
  5. सामाजिक संरचना: जातिवाद का एक मुख्य कारण है सामाजिक संरचना जो विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच अंतरों को बनाए रखती है। इसमें जाति के स्थान, समाज में सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा, और सामाजिक समृद्धि का मान्यता प्राप्त करने की अवधारणा शामिल है।
  6. आर्थिक और सामाजिक असमानता: आर्थिक और सामाजिक असमानता भी जातिवाद के कारणों में से एक है। विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच विवेक की बजाय सामूहिकता और आत्मसमर्पण की भावना रहती है, जो व्यक्ति को उसकी वास्तविक प्रतिष्ठा से वंचित करती है।
  7. धार्मिक मान्यता: कई धार्मिक मान्यताओं में जातिवाद को समर्थित किया जाता है और धार्मिक टेक्स्ट और परंपराओं में इसकी स्थिति को सुनिश्चित किया जाता है। इसका परिणाम है कि लोग जातिवाद को धार्मिक प्रयोजनों के लिए स्वीकार करते हैं और इसका प्रतिरोध करने में कठिनाई होती है।

ये कुछ मुख्य कारण हैं जो वर्तमान समय में जातिवाद की अस्तित्व को बनाए रखने में मदद करते हैं।

जातिवाद के दुष्परिणाम (Ill effects of Casteism)

जातिवाद के प्रभाव विनाशकारी हैं। यह सामाजिक न्याय और समानता में बाधा डालता है। यह लोगों को उनके अधिकारों से वंचित रखता है और समूचे राष्ट्र को गरीबी और पिछड़ेपन में धकेलता है।

यह परोक्ष रूप से भ्रष्टाचार का कारण हो सकता है। एक ही जाति के सदस्य अपनी ही जाति के व्यक्तियों को सभी सुविधाएं और लाभ देने का प्रयास करते हैं, और ऐसा करते समय वे सबसे भ्रष्ट और बेईमान गतिविधियों में भी शामिल होने से नहीं हिचकिचाते हैं।

जातिवाद समाज को अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर उनके बीच गंभीर संघर्ष और तनाव पैदा करता है। यह विभिन्न धर्मों की आपसी समरसता को सांप्रदायिक दंगो में बदल देता है।

समाधान

यह एक जटिल समस्या है जिसके लिए सभी पक्षों से मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।

यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है:

जातिवाद से निपटने में सहायक कानून, अनुच्छेद और प्रावधान

देश में जातिवाद की प्रथा को दूर करने के लिए भारत की पहल नीचे दी गई है।

उपसंहार (Conclusion)

जातिवाद की प्रथा से छुटकारा पाने के लिए सरकार और निजी हितधारकों द्वारा कई सामूहिक पहल की गई, इस संदर्भ में समाज में एक क्रमिक सकारात्मक प्रभाव भी देखा जा सकता है, हालांकि, इसे खत्म करने के लिए अभी भी कुछ असाधारण प्रयास और कठोर कदम उठाये जाने की आवश्यकता है।

जातिवाद राष्ट्र की एकता और विकास पर सबसे बड़ी बाधा है, एक सामाजिक बुराई है जिसे समाज से पूरी तरह से खत्म करने की आवश्यकता है। यह एक ऐसा कार्य है जिसे सभी को मिलकर करना होगा।

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